बूंदियन बरसेंगो मेहु सामन रितु आइए

बूंदियन बरसेंगो मेहु, सामन रितु आइए

मथुरा ब्रजवासियों के जीवन में सावन ऋतु विशेष हैं इस समय समस्त प्रकृति एक नया रूप धारण करती है। आकाश में उमड़ते घुमडते गरजते मेघ ,बरसती बूंदे, ठंडी बयार,चहकते मोर ,पपीहा मानव मन में नवीन ऊर्जा का संचार करते है। ब्रज में श्रावण मास में हरियाली तीज का पर्व धूमधाम से मनाया जाता है।ब्रज के सभी मंदिरों में ब्रजवासियों के प्रिय इष्ट श्री कृष्ण राधा के विग्रह को झूला झूलने के लिए हिंडोले पड़ जाते है ।ब्रज जन स्वयं अपने हाथों से युगल जोड़ी को झूला झूलते हैं और गाते है
हिंडोला कुंज वन डालो रे झूलन आई राधिका प्यारी जी।
काहे के खम्ब लगवाए रे काहे की डारी डोरिया प्यारी
केला के खम्ब लगवाए, रेशम की डारी डोरिया प्यारी जी।“
विश्व प्रसिद्ध बिहारी जी के मंदिर का विशालकाय हिंडोला वर्ष में एक बार ही भक्तों के दर्शनार्थ हरियाली तीज पर सजाया जाता है ।रजत निर्मित इस हिंडोले केंद्रों हेतु भक्तों का जन सैलाब देश के कोने कोने से उमड़ पड़ता है
सभी भक्त मंदिर में गाते है अपने इष्ट को रिझाते है।
छाई है घटा कारी ,झूले बांके बिहारी
रजत को बन्यो या कौ सुंदर हिंडोला छवि लागे अति प्यारी।“
ब्रज के अंचल में सावन की वर्षा ऋतु को बुलाते बच्चे झूले कसने पेड़ पर चढ़ जाते है गुन गुनते हैं
,”कच्ची नीम की निबौरी सामन बेगु अईयो रे,”
न जाने कहां लुप्त हो चलीं हैं, ब्रज के इन लोकगीतों की स्वर लहरियां? सावन की ऋतु में गाए जाने वाला मल्हार गीत नायिका के मन में उदित विभिन्न विषाद रूपी मल का हरण कर लेता है ।सावन में रिमझिम वर्षा में उसे पीहर की याद आने लगती है और श्रृंगार में सुंदर चूड़ियां पहनने के लिए अपनी ननद से कहती है
गलिन गलिन मनरा फिरे ,
बीवी मनराय लियो बुलाए
पहरू चूड़ो तो हाथी दांत को ।।
वही छोटी सी ननदी अपने भैया का मार्ग देखती है कि मेरे भैया मेरे लिए क्या लेकर आएंगे ?
“बाजरे के खेत में दोय चिड़िया चूंचूं करती थी इधर से देखूं बिदर से देख़ू
मेरे कौन से भैया आए रहे हैं?
का का सौदा लाय रहे हैं ?
मेरे दीपक भैया आए रहे है
संग में का का लाय रहे हैं?
मां कु जोड़ा ,बहन कुं चुनरी ,
भाभी कुं चूड़ीयां लाय रहे हैं।
वही भाई के ना आने पर ससुराल में यातनाएं झेल रही महिला अपनी वेदना को करुण स्वर में व्यक्त करती है
उडि उडि कागा मेरे पीहर जाओ,
लाओ खबर माई वाप की
जोंतानु कागा मेरो उड़ान न पायो
विरन लिबऊआ बे आए गए।
चंदन की चौकी मेरे भैया जो बैठे
बात सजन से कर रहे
भेजो रे भेजो जीजा बहन हमारी
संग की सहेली झूले बाग में ।
मायके जाने की प्रसन्नता और सखियों से मिलने का चाव मन में अनंत मल्हार उत्पन्न कर देता है ।
“बागों में पहुंचकर सारी सखियों के साथ झूले झूलती हुई बार-बार स्त्रियां गाने लगते हैं
मेरी बहना ले चलो रेशम डोर झूला तो डारें बाग में।
अरे बहना सातो सहेली मिली संग झूला पै चढ़ के झूल लें।“
बालपन की स्मृतियों एवं गीतों के संवेद स्वर बगीचियों में सुनाई देते है
नन्ही नन्ही बुंदिया रे, सावन में मेरा झूलना एक झूला डालो मैंने बाबा जी के राज में,
संग की सहेली रे, गुड़ियों से मेरा खेलना,
एक झूला डालो मैंने बाबुल के राज में,
बाग़ हिंडोले रे ओरु उन पै मेरा झूलना।
पावस की ऋतु में ब्रज में अनगिनत गीत पन्ना मारु,चन्दना,मोरा,निहालदे,बिजासन
विजयरानी, गोपीचंद ,चंद्रावल जैसे एतिहासिक संदर्भों से भरे लोकगीत न जाने कहां विस्मृत होते जा रहे है।आइए सब मिल कर अपनी सांस्कृतिक धरोहर को संरक्षित करे।

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